मोदी मंत्रिमंडल ने 3 जून को दो नए अध्यादेशों पर मुहर लगाई थी और EC Act में संशोधन की मंजूरी दी थी जिनकों को अब संसद से मंजूरी मिल चुकी है,आखिर वो कौन से पहलू हैं, जिन्हें लेकर किसानों और व्यापारियों दोनों की चिंता बढ़ गई है।इन कानूनों को लेकर किस बात का डर है, जिसे सरकार अर्थव्यवस्था नायकों के दिमाग से निकाल नहीं पा रही है,या फिर किसानों-व्यापारियों का अपने भविष्य को लेकर आकलन ठीक है? दोनों पक्षों का क्या कहना है तो आइये पहले समझते हैं कि इन तीनों क़ानूनों में आख़िर है क्या….
पहला है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) क़ानून, 2020…
सरकार का कहना है कि इस क़ानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहाँ किसानों और व्यापारियों को राज्य की (APMC) एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी।इसमें किसानों की फ़सल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है।बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर ख़र्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके।
इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है।
कहने का मतलब है कि इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार होगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनेगा। कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगाकिसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजार की लागत कम होगी और उन्हें अपने उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी।इस कानून से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। कृषि माल की बिक्री कृषि उपज मंडी समिति (APMC) में होने की शर्त हटा ली गई है. जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगेगा।
पर किसानों का कहना है कि जब किसानों के उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मिल रहा है या नहीं। MSP की गारंटी नहीं दी गई है।किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं। वो इसे किसानों का कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेट से कम पर खरीद करने वाले जेल में डाले जा सकें। इस कानून से किसानों में एक बड़ा डर यह भी है कि किसान व कंपनी के बीच विवाद होने की स्थिति में कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता। SDM और DM ही समाधान करेंगे जो राज्य सरकार के अधीन काम करते हैं,ऐसे में क्या वे सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम कर सकते हैं?
व्यापारियों का कहना है कि सरकार के नए कानून में साफ लिखा है कि मंडी के अंदर फसल आने पर मार्केट फीस लगेगी और मंडी के बाहर अनाज बिकने पर मार्केट फीस नहीं लगेगी।ऐसे में मंडियां तो धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी।कोई मंडी में माल क्यों खरीदेगा ,उन्हें लगता है कि यह आर्डिनेंस वन नेशन टू मार्केट को बढ़ावा देगा।
वहीं विपक्ष का तर्क है कि राज्य को राजस्व का नुक़सान होगा क्योंकि अगर किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर फ़सल बेचेंगे तो वे ‘मंडी फ़ीस’ नहीं वसूल पाएंगे।कृषि व्यापार अगर मंडियों के बाहर चला गया तो ‘कमिशन एजेंटों’ का क्या होगा?इसके बाद धीरे-धीरे MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के ज़रिए फ़सल ख़रीद बंद कर दी जाएगी
दूसरा कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार क़ानून, 2020…
इस कानून को सरकार ने कांट्रैक्ट फार्मिंग के मसले पर लागू किया है इससे खेती का जोखिम कम होगा और किसानों की आय में सुधार होगा।समानता के आधार पर किसान प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम होगा।किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट्स तक पहुंच सुनिश्चित होगी। मतलब यह है कि इसके तहत कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा। जिसमें बड़ी-बड़ी कंपनियां किसी खास उत्पाद के लिए किसान से कांट्रैक्ट करेंगी उसका दाम पहले से तय हो जाएगा इससे अच्छा दाम न मिलने की समस्या खत्म हो जाएगी।
मतलब कि इस क़ानून में कृषि क़रारों (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) को उल्लिखित किया गया है इसमें कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिग के लिए एक राष्ट्रीय फ्ऱेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है। इस क़ानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फ़सल बेच सकते हैं।पांच हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले छोटे किसान कॉन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे।
बाज़ार की अनिश्चितता के ख़तरे को किसान की जगह कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है।
अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना,तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी,इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाज़ार में जा सकता है।किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है।
इस बिल में अन्नदाताओं के लिए काम करने वाले संगठनों और कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून से किसान अपने ही खेत में सिर्फ मजदूर बनकर रह जाएगा। केंद्र सरकार पश्चिमी देशों के खेती का मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में कंपनियां किसानों का शोषण करती हैं। उनके उत्पाद को खराब बताकर रिजेक्ट कर देती हैं।दूसरी ओर व्यापारियों को डर है कि जब बड़े मार्केट लीडर उपज खेतों से ही खरीद लेंगे तो आढ़तियों को कौन पूछेगा। मंडी में कौन जाएगा।
वहीं इस बिल पर विपक्ष का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के दौरान किसान प्रायोजक से ख़रीद-फ़रोख़्त पर चर्चा करने के मामले में कमज़ोर होगा।छोटे किसानों की भीड़ होने से शायद प्रायोजक उनसे सौदा करना पसंद न करे।किसी विवाद की स्थिति में एक बड़ी निजी कंपनी, निर्यातक, थोक व्यापारी या प्रोसेसर जो प्रायोजक होगा उसे बढ़त होगी।
तीसरा है आवश्यक वस्तु (संशोधन) क़ानून 2020…
सरकार का कहना है कि देश में ज्यादातर कृषि उत्पाद सरप्लस हैं, इसके बावजूद कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग के अभाव में किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने में असमर्थ रहे हैं क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम की तलवार लटकती रहती थी ऐसे में जब भी जल्दी खराब हो जाने वाली कृषि उपज की बंपर पैदावार होती है, तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था
इसलिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दालें, प्याज और आलू आदि को इस एक्ट से बाहर किया गया है इसके साथ ही व्यापारियों द्वारा इन कृषि उत्पादों की एक लिमिट से अधिक स्टोरेज पर लगी रोक हट गई है। जब सरकार को जरूरत महसूस होगी तो वो फिर से पुरानी व्यवस्था लागू कर देगी।मतलब कि इस क़ानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज़ और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ़ युद्ध जैसी ‘असाधारण परिस्थितियों’ को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है।
सरकार का कहना है कि इस क़ानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा क्योंकि अब तक अत्यधिक क़ानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे।
कृषि इन्फ़्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फ़ूड स्प्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा।यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा।
इस बिल पर किसानों का कहना है एक्ट में संशोधन बड़ी कंपनियों और बड़े व्यापारियों के हित में किया गया है। ये कंपनियां और सुपर मार्केट सस्ते दाम पर उपज खरीदकर अपने बड़े-बड़े गोदामों में उसका भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे।
क्यों बना था यह एक्ट …
पहले व्यापारी किसानों से उनकी उपज को औने-पौने दाम में खरीदकर पहले उसका भंडारण कर लेते थे बाद में उसकी कमी बताकर कालाबाजारी करते थे ।उसे रोकने के लिए ही एसेंशियल कमोडिटी एक्ट बनाया गया था जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों के एक लिमिट से अधिक भंडारण पर रोक थी लेकिन अब इसमें संशोधन करके सरकार ने उन्हें कालाबाजारी करने की खुली छूट दे दी है।
इस पर विपक्ष का कहना है कि असाधारण परिस्थितियों’ में क़ीमतों में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा।बड़ी कंपनियों को किसी फ़सल को अधिक भंडार करने की क्षमता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी।
किसानों द्वारा हो रहे विरोध के और भी हैं कारण,,,आइये जानते हैं क्या हैं ये,
किसान संगठनों का आरोप है कि नए क़ानून की वजह से कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा।
किसानों को अगर बाज़ार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वो बाहर क्यों जाते। जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिलती, उन्हें वो कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं।
प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5% के कमीशन का घाटा होगा। साथ ही राज्य भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जो वो एजेंसी की ख़रीद पर लगाता आया है।किसानों का कहना है कि इसका सबसे बड़ा नुक़सान आने वाले समय में ये होगा कि धीरे-धीरे मंडियां ख़त्म होने लगेंगी।
बाज़ार के लिए है यह क़ानून?
दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर किसानों का मानना हैं कि तकरीबन 86% ₹छोटे किसान एक ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का सवाल ही नहीं उठता।ये बाज़ार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं।”
पहला है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) क़ानून, 2020…
सरकार का कहना है कि इस क़ानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहाँ किसानों और व्यापारियों को राज्य की (APMC) एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी।इसमें किसानों की फ़सल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है।बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर ख़र्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके।
इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है।
कहने का मतलब है कि इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार होगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनेगा। कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगाकिसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजार की लागत कम होगी और उन्हें अपने उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी।इस कानून से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। कृषि माल की बिक्री कृषि उपज मंडी समिति (APMC) में होने की शर्त हटा ली गई है. जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगेगा।
पर किसानों का कहना है कि जब किसानों के उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मिल रहा है या नहीं। MSP की गारंटी नहीं दी गई है।किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं। वो इसे किसानों का कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेट से कम पर खरीद करने वाले जेल में डाले जा सकें। इस कानून से किसानों में एक बड़ा डर यह भी है कि किसान व कंपनी के बीच विवाद होने की स्थिति में कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता। SDM और DM ही समाधान करेंगे जो राज्य सरकार के अधीन काम करते हैं,ऐसे में क्या वे सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम कर सकते हैं?
व्यापारियों का कहना है कि सरकार के नए कानून में साफ लिखा है कि मंडी के अंदर फसल आने पर मार्केट फीस लगेगी और मंडी के बाहर अनाज बिकने पर मार्केट फीस नहीं लगेगी।ऐसे में मंडियां तो धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी।कोई मंडी में माल क्यों खरीदेगा ,उन्हें लगता है कि यह आर्डिनेंस वन नेशन टू मार्केट को बढ़ावा देगा।
वहीं विपक्ष का तर्क है कि राज्य को राजस्व का नुक़सान होगा क्योंकि अगर किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर फ़सल बेचेंगे तो वे ‘मंडी फ़ीस’ नहीं वसूल पाएंगे।कृषि व्यापार अगर मंडियों के बाहर चला गया तो ‘कमिशन एजेंटों’ का क्या होगा?इसके बाद धीरे-धीरे MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के ज़रिए फ़सल ख़रीद बंद कर दी जाएगी
दूसरा कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार क़ानून, 2020…
इस कानून को सरकार ने कांट्रैक्ट फार्मिंग के मसले पर लागू किया है इससे खेती का जोखिम कम होगा और किसानों की आय में सुधार होगा।समानता के आधार पर किसान प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम होगा।किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट्स तक पहुंच सुनिश्चित होगी। मतलब यह है कि इसके तहत कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा। जिसमें बड़ी-बड़ी कंपनियां किसी खास उत्पाद के लिए किसान से कांट्रैक्ट करेंगी उसका दाम पहले से तय हो जाएगा इससे अच्छा दाम न मिलने की समस्या खत्म हो जाएगी।
मतलब कि इस क़ानून में कृषि क़रारों (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) को उल्लिखित किया गया है इसमें कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिग के लिए एक राष्ट्रीय फ्ऱेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है। इस क़ानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फ़सल बेच सकते हैं।पांच हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले छोटे किसान कॉन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे।
बाज़ार की अनिश्चितता के ख़तरे को किसान की जगह कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है।
अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना,तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी,इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाज़ार में जा सकता है।किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है।
इस बिल में अन्नदाताओं के लिए काम करने वाले संगठनों और कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून से किसान अपने ही खेत में सिर्फ मजदूर बनकर रह जाएगा। केंद्र सरकार पश्चिमी देशों के खेती का मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में कंपनियां किसानों का शोषण करती हैं। उनके उत्पाद को खराब बताकर रिजेक्ट कर देती हैं।दूसरी ओर व्यापारियों को डर है कि जब बड़े मार्केट लीडर उपज खेतों से ही खरीद लेंगे तो आढ़तियों को कौन पूछेगा। मंडी में कौन जाएगा।
वहीं इस बिल पर विपक्ष का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के दौरान किसान प्रायोजक से ख़रीद-फ़रोख़्त पर चर्चा करने के मामले में कमज़ोर होगा।छोटे किसानों की भीड़ होने से शायद प्रायोजक उनसे सौदा करना पसंद न करे।किसी विवाद की स्थिति में एक बड़ी निजी कंपनी, निर्यातक, थोक व्यापारी या प्रोसेसर जो प्रायोजक होगा उसे बढ़त होगी।
तीसरा है आवश्यक वस्तु (संशोधन) क़ानून 2020…
सरकार का कहना है कि देश में ज्यादातर कृषि उत्पाद सरप्लस हैं, इसके बावजूद कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग के अभाव में किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने में असमर्थ रहे हैं क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम की तलवार लटकती रहती थी ऐसे में जब भी जल्दी खराब हो जाने वाली कृषि उपज की बंपर पैदावार होती है, तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था
इसलिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दालें, प्याज और आलू आदि को इस एक्ट से बाहर किया गया है इसके साथ ही व्यापारियों द्वारा इन कृषि उत्पादों की एक लिमिट से अधिक स्टोरेज पर लगी रोक हट गई है। जब सरकार को जरूरत महसूस होगी तो वो फिर से पुरानी व्यवस्था लागू कर देगी।मतलब कि इस क़ानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज़ और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ़ युद्ध जैसी ‘असाधारण परिस्थितियों’ को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है।
सरकार का कहना है कि इस क़ानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा क्योंकि अब तक अत्यधिक क़ानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे।
कृषि इन्फ़्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फ़ूड स्प्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा।यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा।
इस बिल पर किसानों का कहना है एक्ट में संशोधन बड़ी कंपनियों और बड़े व्यापारियों के हित में किया गया है। ये कंपनियां और सुपर मार्केट सस्ते दाम पर उपज खरीदकर अपने बड़े-बड़े गोदामों में उसका भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे।
क्यों बना था यह एक्ट …
पहले व्यापारी किसानों से उनकी उपज को औने-पौने दाम में खरीदकर पहले उसका भंडारण कर लेते थे बाद में उसकी कमी बताकर कालाबाजारी करते थे ।उसे रोकने के लिए ही एसेंशियल कमोडिटी एक्ट बनाया गया था जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों के एक लिमिट से अधिक भंडारण पर रोक थी लेकिन अब इसमें संशोधन करके सरकार ने उन्हें कालाबाजारी करने की खुली छूट दे दी है।
इस पर विपक्ष का कहना है कि असाधारण परिस्थितियों’ में क़ीमतों में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा।बड़ी कंपनियों को किसी फ़सल को अधिक भंडार करने की क्षमता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी।
किसानों द्वारा हो रहे विरोध के और भी हैं कारण,,,आइये जानते हैं क्या हैं ये,
किसान संगठनों का आरोप है कि नए क़ानून की वजह से कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा।
किसानों को अगर बाज़ार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वो बाहर क्यों जाते। जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिलती, उन्हें वो कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं।
प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5% के कमीशन का घाटा होगा। साथ ही राज्य भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जो वो एजेंसी की ख़रीद पर लगाता आया है।किसानों का कहना है कि इसका सबसे बड़ा नुक़सान आने वाले समय में ये होगा कि धीरे-धीरे मंडियां ख़त्म होने लगेंगी।
बाज़ार के लिए है यह क़ानून?
दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर किसानों का मानना हैं कि तकरीबन 86% ₹छोटे किसान एक ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का सवाल ही नहीं उठता।ये बाज़ार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं।”