इस साल भारत में धान और अरहर की खेती वाले इलाके बीते साल के मुकाबले कम हो गए हैं, यह खबर कृषि मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया है। धान की खेती वाले इलाके 34 फीसदी और अरहर की खेती वाले इलाके 65 फीसदी कम हो गए हैं। खरीफ मौसम में सोयाबीन की खेती वाले इलाके भी बीते साल के मुकाबले 34 फीसदी कम हो गए हैं।
भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और आयातक होने के बावजूद इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। खासकर दाल की खेती के सिकुड़ते इलाके ने इस सवाल को और गंभीर बना दिया है। दुखद है कि पहले कभी बाजार से दाल खरीदने की आवश्यकता नहीं होती थी लेकिन अब ऐसा करने पर किसान मजबूर हैं। दाल की खेती Indian Economy: भारतीय अर्थव्यवस्था नवीनतम रफ्तार पर, चीन से आगे!
भारत दलहन या दालों की खेती के मामले में पूरी दुनिया में पहले नंबर पर है। यहां पैदा होने वाली दालों का लगभग 28 फीसदी उत्पादन होता है। देश में खाद्यान्नों के कुल उत्पादन में दाल का हिस्सा सात से दस फीसदी है। दुनिया भर में जितनी दाल खाई जाती है, उसकी 27 फीसदी खपत भी यहीं होती है। इसके अलावा, दाल के आयात में भी भारत पहले नंबर पर है।
दलहन की खेती हालांकि रबी और खरीफ दोनों सीजन में होती है, लेकिन रबी के सीजन में कुल उत्पादन में 60 फीसदी हिस्सा दलहन का होता है। देश में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे छह प्रमुख दाल उत्पादक राज्यों की शामिल है। इन राज्यों की हिस्सेदारी करीब 80 फीसदी है जब दालों के कुल उत्पादन की बात आती है।
घट रही है दलहन की खेती (Decreasing cultivation of pulses)
कृषि मंत्रालय की ओर से जारी ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि बीते साल के मुकाबले इस साल दलहन के खेती वाले इलाके 65.56 फीसदी कम हो गए हैं। यह आंकड़ा बीते सप्ताह यानी 23 जून तक का है। इसमें कहा गया है कि धान की खेती वाले इलाकों में भी 34.76 फीसदी कमी आई है।
खेती में रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल से बढ़ता खतरा (Increasing Risk due to the Growing Use of Chemical Fertilizers in Agriculture)
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, बीते साल 1.8 लाख हेक्टेयर इलाके में दलहन की सबसे प्रमुख किस्म अरहर की खेती हुई थी। इस साल यह इलाका घट कर 65 हजार हेक्टेयर ही रह गया है। इससे इसकी कीमत सरकार के साथ आम उपभोक्ताओं के लिए भी मुसीबत बन सकती हैं। बीते साल इसकी पैदावार में आठ लाख टन की गिरावट के बाद कीमतें तेजी से बढ़ी थी।
खरीफ सीजन में दलहन की दूसरी किस्म यानी उड़द की खेती वाले इलाके भी 30.38 फीसदी कम हुए हैं। इस साल 23 जून तक महज 55 हजार हेक्टेयर में ही उड़द की बुवाई हो सकी है जबकि बीते साल इस समय तक यह आंकड़ा 79 हजार हेक्टेयर था। इसी तरह खरीफ के सीजन में सोयाबीन की खेती वाला इलाका भी 1.5 लाख हेक्टेयर से घट कर 99 हजार हेक्टेयर तक आ गया है।
आसान नहीं है दाल उगाना (Growing Pulses is not Easy)
कृषि विशेषज्ञ डा. मनोज कांति मजूमदार बताते हैं, दलहन की खेती में विभिन्न समस्याओं और बढ़ती लागत के कारण किसान दूसरी फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसकी वजह से खपत के लिहाज से मांग पूरी करने के लिए आयात पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है। वह बताते हैं कि दलहन की फसलों में पानी की कम खपत होती है और यह जमीन में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा कर उसकी उर्वरता बढ़ाने में सहायता करती हैं।
केंद्र सरकार का दावा है कि बीते पांच-छह साल में भारत ने दलहन उत्पादन को 140 लाख टन से बढ़ाकर 240 लाख टन तक कर लिया है। दिक्कत यह है कि उत्पादन के मुकाबिले मांग ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। कृषि मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक, साल 2050 तक करीब 320 लाख टन दलहन की जरूरत होगी। ऐसे में अगर इसकी खेती का दायरा बढ़ा नहीं तो आयात पर निर्भरता कम होना मुश्किल है। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1951 में दालों की उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 22.1 किलोग्राम की उपलब्धता थी जो वर्ष 2021 में घटकर 16.4 किलो रह गई है।
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मजूमदार कहते हैं कि दलहन की फसल मिट्टी और आम लोगों के स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। यह प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत है। लेकिन दलहन की खेती का क्षेत्रफल पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है। पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में अरहर की खेती बहुत ज्यादा होती थी, लेकिन धीरे-धीरे इसका स्तर काफी कम हो गया है। अब इस इलाके में अरहर के खेतों की कमी नजर आती है। इसके अलावा, आवारा पशुओं और नीलगायों की वजह से भी अरहर की खेती करने वाले किसानों को कठिनाइयां आई हैं। इसलिए, अब वे दूसरी फसलों की ओर मुड़ रहे हैं।
दूसरी फसलों की ओर मुड़ रहे हैं किसान (Farmers are turning to other crops)
महाराष्ट्र जैसे दाल उत्पादक राज्य में अब रबी और खरीफ के सीजन के बीच के समय में मूंग और उड़द की जगह सोयाबीन की खेती हो रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि अरहर की खेती वाले इलाकों में दशकों से विस्तार नहीं हुआ है। इसके साथ ही, सोयाबीन के बेहतर मूल्य और तत्काल नकदी प्राप्ति के कारण किसानों में सोयाबीन की खेती के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है।
विशेषज्ञ आंकड़ों के अनुसार, सोयाबीन की फसल सिर्फ 110 दिनों में तैयार हो जाती है और प्रति एकड़ 7-8 क्विंटल तक उपज होती है। वहीं, अरहर की फसल 152 से 183 दिनों में तैयार होती है और औसतन प्रति एकड़ तीन क्विंटल तक ही उपज होती है।
दाल उगाना घाटे का सौदा (Growing pulses is a loss deal)
पश्चिम बंगाल के किसान सुजीत मंडल बताते हैं कि दलहन की जगह सोयाबीन के खेती हमारे लिए फायदे का सौदा है। इसकी उचित कीमत मिल जाती है। लेकिन दलहन की खेती की लागत उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के समान या उससे ज्यादा होती है। ऐसे में कोई दलहन के खेती क्यों करेगा? सोयाबीन की प्रति एकड़ पैदावार भी ज्यादा है और यह फसल दलहन के मुकाबले जल्दी तैयार भी हो जाती है। खेत खाली होने पर हम दूसरी फसलें उगा सकते हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर जैसे पांच दलहन शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब के किसानों ने पानी और सिंचाई का बेहतर इंतजाम होते ही दूसरी फसलों का रुख कर लिया है। उत्तर प्रदेश का सूखा प्रभावित देलखंड क्षेत्र भी दलहन की खेती के प्रसिद्ध रहा है। लेकिन स्थानीय किसान अब दलहन के बदले गेहूं की फसल को तरजीह देने लगे हैं।
दाल है जरूरी (Dal is essential)
दलहन के खेती से किसानों की लागत भले नहीं वसूल हो, बाजार में उसकी कीमत आम उपभोक्ताओं के पहुंच से बाहर होने लगी हैं। यही वजह है कि पहले जिन घरों में रोजाना दल बनती थी वहां भी अब सप्ताह में दो या तीन दिन ही दाल पकाई जाती है। कोलकाता की एक गृहिणी सुमिता मंडल कहती हैं, “दाल की लगातार बढ़ती कीमतों ने बहुत पहले से रसोई का बजट बिगाड़ दिया है। हम दाल की जगह अब मछली या अंडे के सेवन को तरजीह देने लगे हैं।”
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सबसे बड़ी मुश्किल शाकाहारी लोगों के लिए है। एक आईटी कंपनी में काम करने वाले बिहार के विनीत कुमार पांडे बताते हैं, “दाल चाहे कितनी भी महंगी हो, उसके बिना तो काम नहीं चलेगा। हां, संतुलन बनाने के लिए हम कई बार रसदार सब्जियों से ही काम चला लेते हैं।”
कृषि विशेषज्ञ श्रीजीत कुमार विश्वास कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ने वाली चरम घटनाएं और अत्यधिक वर्षा कृषि के फसल चक्र को प्रभावित कर रही है। सरकार ने अगर दलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त इंसेंटिव नहीं दिए और इसका समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाया तो आम उपभोक्ताओं से इसकी दूरी और बढ़ने का अंदेशा है।”