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ऐतिहासिक बीसलपुर की मेला श्री रामलीला तकरीबन 100 से 120 वर्ष से अधिक पुरानी मानी जाती है। इस मेले ने बीसलपुर को एक सांस्कृतिक पहचान दी है।
मेला श्री रामलीला की ऐसे पड़ी नींव
पीलीभीत जनपद की तहसील बीसलपुर के सुप्रसिद्घ मेला श्री रामलीला की शुरुआत लाला खुन्नीलाल कायस्थ ने 19 वीं सदी के आरंभ में की थी तब इसका आयोजन मंदिर बाबा गुलेश्वरनाथ के समीप किया गया था। यहाँ पर अयोध्या का सुंदर भवन बना है लोग बताते थे कि तब वहाँ पर बाग थे। यह बाग कायस्थ और ब्राह्मण परिवारों के थे। इस प्रकार सन 1900 में यहाँ एक छोटे मेले का रूप विकसित हो गया। लीला के लिए बाँस गाड़कर रस्सी से बाड़ा बनाया जाता था चूँकि यहाँ ग्वाले पशु चराया करते थे तो वो वे भी रुचि लेकर लीला में प्रतिभाग करने लगे हाँलाकि प्रारंभ में लीला का यह कार्य लोगों से चन्दा एकत्रित करके होता था।
सन् 1903 की सरकारी पत्रावलियों में रामलीला के अयोध्यापुरी के स्थान पर एक बड़े चबूतरे का उल्लेख है। चबूतरे पर बनी कच्ची कोठरी और बाद में पक्के दरवाजों की सहदरी बनी जिसके दोनों ओर सीढ़ियां थी जहाँ लीला देखने आने वाली महिलाएं बैठकर लीला देखा करती थी।
मेला कमेटी के पास है तकरीबन 100 बीघा जमीन
जानकारों की मानें तो मेला कमेटी के पास मेला श्री रामलीला के आयोजन के लिए लगभग 100 बीघा से अधिक जमीन है। जिस पर मेला का आयोजन होता है और खेल तमाशे व बाजार – दुकानें भी लगती हैं।
बड़े भू – भाग पर होता है लीला मंचन
वर्तमान में बीसलपुर के रामलीला मैदान में राम की लीलाओं का मंचन ज़मीन के एक बडे भू-भाग पर चारों ओर से घिरे रामलीला मैदान में घूम – घूम कर होता है । लीला के दौरान इस मैदान को चारों ओर से लोहे के गेट से बंद कर दिया जाता है।
लीला मैदान में अयोध्या के सामने बनी है लंका
मेला श्री रामलीला स्थल पर एक ओर राम की अयोध्या तो उसके ठीक सामने रावण की लंका बनी है। इसके अलावा यहाँ अशोक वाटिका, पंचवटी, भरत कुटी, सीताकुटी एवं शिवकुटी के विशाल ,भव्य व पक्के भवन बने है। मैदान का शेष हिस्सा खाली है, जिसमें लीला का मंचन किया जाता है।
सन् 1936 के बाद मेला श्री रामलीला का हुआ विकास
सन् 1936 के आसपास रामलीला के प्रबंध में बहुत सुधार हुआ और बाबू देवीदास एडवोकेट के सरंक्षण में मेले का विस्तार हुआ। उनके परिवार के लोग भी मेला प्रबंधन में भाग लेते रहे लेकिन सारा श्रेय बाबू जी को ही मिला। बताया जाता है बाबू देवीदास श्रीराम के परम भक्त थे और बहुत अच्छे वकील थे। बाद में बाबू देवीदास पीलीभीत में वकालत करने लगे पर रामलीला के दिनों में वह बीसलपुर में ही रहते थे।वो बीसलपुर में मेला श्री रामलीला के दौरान सभी अधिकारियों को आमंत्रित करते थे और सबसे मेले की प्रगति के लिए गुजारिश भी करते थे। यही कारण रहा कि उनके समय से मेले का बहुत विकास हुआ।
सन 1946 में रजिस्टर्ड हुई रामलीला कमेटी
इसके बाद मेला श्री रामलीला को कराने की ज़िम्मेदारी पण्डित देवी सहाय दुबे के हाथ में पहुँची। उस वक़्त सबसे अच्छा काम ये हुआ कि सन् 1946 में रामलीला कमेटी रजिस्टर्ड हो गई।
सन 1954 से पं श्रीगोपाल दुबे ने संभाली ज़िम्मेदारी
सन 1954 से कमेटी का नेतृत्व पण्डित श्रीगोपाल दुबे ने किया।मेले के पास अपनी लगभग 100 बीघा जमीन है। मेला अवधि में लगने वाले दुकानों का किराया और किसानों की फसल आदि से इसकी आय होती है।
विजयदशमी के दिन परलोक सिधारे तीन रावण
रावण की भूमिका निभाने वाले मुंशी छेदालाल का देहावसान वर्ष 1962 में ठीक विजयदशमी के दिन लीला परिसर में लीला खेलते समय हो गया था। यह आश्चर्यजनक जरूर है, लेकिन सत्य है, जिसकी पुनरावृत्ति तीन बार हो चुकी है। रावण की भूमिका निभाने वाले मोती महाराज की मृत्यु भी दशहरा वाले दिन वर्ष 1978 में उसी समय मेला मैदान में हुई थी, जिस समय रावण मारा गया था। वर्ष 1987 में रावण की भूमिका अदा करने वाले कल्लूमल उर्फ गंगा विष्णु ने भी रावण वध लीला के समय लीला खेलते हुए अपने प्राण त्यागकर इतिहास को दोहरा दिया था। उनकी स्मृति में मेला ग्राउंड में मेला कमेटी की ओर से रावण के भेष में प्रतिमा स्थापित की गयी है।
35 साल पहले रावण बने कल्लूमल की मृत्यु होने की रोचक कहानी
स्रोत के अनुसार वर्ष 1986 में दशहरे के दिन रावण वध की लीला चल रही थी जिसमें रावण का अभिनय मोहल्ला दुर्गा प्रसाद निवासी गंगा विष्णु उर्फ कल्लूमल रस्तोगी रहे थे। रावण वध यानी उनकी मृत्यु से ठीक एक दिन पहले कल्लूमल ने अपनी इच्छा प्रकट की कि भगवान श्रीराम के हाथों अगर उन्हें इस संसार से वाकई मुक्ति मिल जाए तो बहुत अच्छा रहेगा अगले दिन राम-रावण युद्ध शुरू हुआ संयोग की बात है कि उनकी इच्छानुसार राम का वाण लगते ही रावण का अभिनय करने वाले कल्लूमल की वास्तविक मौत हो गई। मेले में राम-रावण युद्ध लीला देख रहे दर्शक पहले समझे कि रावण बने कल्लूमल अभिनय के अनुसार मरने का नाटक कर रहे हैं मगर जब कल्लूमल बहुत देर तक नहीं उठे तो वहाँ उपस्थित साथी कलाकारों ने उन्हें हिलाया-डुलाया। मगर, रावण का अभिनय करते हुए कल्लूमल के प्राण वाक़ई पखेरू हो चुके थे। तब से बीसलपुर में रामलीला मंचन दर्शकों में और ज्यादा लोकप्रिय हो गया। हर साल रामलीला मेले में स्थानीय कलाकार रामायण के पात्र राम, भरत, लक्ष्मण, सीता, शत्रुघ्न, अंगद, हनुमान, रावण, बालि, सु्ग्रीव आदि का मंचन करते हैं।
इस दिन होता है मेला श्री रामलीला का शुभारंभ
इसका शुभारम्भ झंडी लगने के दिन से ही होता है। मेला प्रत्येक वर्ष शरद ऋतु से प्रारंभ होकर एक माह चलता है। रावण वध, राम बरात एवं राजगद्दी देखने के लिए लाखों की भीड़ एकत्र होती है।ये राजगद्दी बाजो गाजों के साथ निर्धरित स्थानों से होते हुए पूरे नगर में घुमाई जाती है जहाँ लोग सड़कों पर व अपनी अपनी छतों पर इस राजगद्दी के साक्षी बनते हैं और पुष्प वर्षा करते हैं।
दुबे तालाब पर होती है केवट लीला
रामलीला में श्री राम द्वारा माता सीता और लक्ष्मण के साथ वनगमन की लीला लगभग 25-30 वर्ष से केवट लीला के रूप में दुबे तालाब पर होती है। सुरसरि पर जाने पर श्रीराम भारद्वाज आश्रम में आते हैं। श्री 108 बाबा गोविंद दास की मढ़ी पर जलपान कर लीला विसर्जन होता है। अब लीला मेले की अवधि एक माह होती है।
ब्राह्मण जाति से होते हैं सभी किरदार
रामलीला की एक विशेषता यह भी है कि रावण एवं उसके दल के पात्रों को छोड़कर शेष सभी पात्र ब्राह्मण जाति के होते है। लीला में सीता, मंदोदरी, सूपर्णखा, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, शबरी, उर्मिला समेत सभी पात्रों की भूमिका पुरुष कलाकार ही निभाते है।यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि बीसलपुर का ऐतिहासिक रामलीला मेला में लीला का मंचन करने वाले राम व रावण दल के सभी पात्र निशुल्क लीला का मंचन करते है।
लंका दहन के दिन विशेष आतिशबाजी का होता है मुजायरा
लंका दहन के दिन आतिशबाजी का विशेष व्यवस्था होती है। रावण, कुंभकरण व मेघनाद के 30-40 फुट ऊंचे पुतले आकर्षण का केन्द्र होते हैं। मेले में नौटंकी, सर्कस, सिनेमा, खेल तमाशे, विभिन्न प्रकार के छोटे बड़े झूले, सॉफ्टी, गोलगप्पे ,चाट, मिठाई,जलेबी, बिसात खाने, खिलौने,चाय, फल, बास, लोहे का सामान, किताबे, कलेंडर ,मिट्टी के बर्तन,कपड़ो की सेल की दुकानें,आदि तकरीबन सभी प्रकार की दुकानें लगती है। विराट दंगल, कीर्तन, भजन व लोक गायनों की मंडलियां भी यहाँ जुड़ती थी, पर अब सिनेमा जैसी कोई भी चीज़ यहाँ बर्षों से नहीं लगती।
राजगद्दी व बारात शोभायात्राएं बिखेरती है निराली छटा।
मेले में अभिनय करने वाले लोग कई पीढ़ियों के आस्था के साथ अभिनय करते आ रहे है। मेले में पात्रों का श्रृंगार, हिरन, हाथी, घोड़े, जटायु आदि का हर वर्ष सजाया जाना देखते ही बनता है। अभिनय के लिए अब तो पुरस्कार भी दिए जाते है। दैनिक कार्यक्रम में आरती व प्रसाद वितरण होता है। मेला समापन पर पात्रों को सम्मान दिया जाता रहा है। बारात व राजगद्दी की शोभायात्राएं मनमोह लेती है।
नब्बे के दशक से सर्कस और चिड़ियाघर के आयोजन पर रोक
90 दशक के आसपास के वर्षो में बड़ा सर्कस व चिड़ियाघर भी लगा करता था लेकिन वो भी अब गुजरे जमाने की बात हो गयी। मीडिया स्रोत के अनुसार पीपल्स फॉर एनिमल संस्था की संस्थापिका ,पीलीभीत की पूर्व सांसद एवं पूर्व मंत्री मेनका गांधी पशुओं के लिए साल 1992 से एक संगठन चला रही हैं जो उनके अधिकार और रक्षा के लिए काम करता है।जिसकी वजह से मेले में सर्कस औऱ चिड़ियाघर लगने को लेकर बैन लग गया जो कि बदस्तूर जारी है।आपको बता दें कि तत्कालीन एशिया का सबसे बड़ा सर्कस भारत सर्कस यहाँ लग के मेले में लग चुका है।
मेले में सर्कस न लगने विशेष वज़ह
दूसरी ओर जानवरों के प्रति सख्त कानून होने की वजह से भी कोई भी सर्कस कराने वाली संस्थाएं सर्कस में रुचि नहीं लेती।वो अलग बात है की दर्शक आज भी जानवरों के हैरतअंगेज कारनामें देखना चाहते हैं हालांकि सर्कस मालिकों की मानें तो प्रतिदिन जानवरों के भोजन-पानी और देख-रेख में 25,000 से 30,000 रुपए खर्च होते हैं।
इसी वजह से पिछले 15 सालों में सर्कस कराने वाली संस्थाओं की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई है। 15 साल पहले भारत में 350 से भी ज्यादा सर्कस थे, परन्तु वर्तमान में यह संख्या घटकर मात्र 11 से 12 हो चुकी है। सर्कस का यह आंकड़ा निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है।इतनी भारी संख्या में सर्कस का बंद होना हुनरमंद कलाकारों के लिए रोजीरोटी की समस्या उत्पन्न कर रही है।
वृंदावन के कलाकार करते हैं रासलीला का मंचन
दशहरा होने के बाद वृंदावन के कलाकार रात में 10 बजे से शानदार रासलीला का मंचन करते हैं जिसको देखने के लिए हज़ारों की भीड़ उमड़ती है। वृंदावन के कलाकार सुंदर सुसज्जित कपड़े पहनकर मंच पर माइक द्वारा डायलाग बोलकर लीला का मंचन करते है उसमें राधा कृष्ण की झांकी सजती है रासलीला के आखिरी दिन फूलों की होली खेली जाती है जिसको देखकर वहाँ उपस्थित लोग रोमांचित हो जाते है रासलीला को दर्शक पूरे उत्साह से देखते हैं।
सोने पर सुहागा है कवि सम्मेलन
बीसलपुर के ऐतिहासिक मेला श्री रामलीला में प्रत्येक वर्ष अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे का भी आयोजन किया जाता है। इसमें देश के विभिन्न शहरों से कवि और शायर आकर अपनी रचनाएं सुनाते हैं और उपस्थित लोगों को गुदगुदाते हैं लोग बताते हैं मशहूर कवि कुमार विश्वास भी यहाँ के मेले में कविता पाठ कर चुके हैं।इस कवि सम्मेलन को देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ती है।कवि सम्मेलन तकरीबन रात 10 बजे से शुरू होकर सुबह 4 बजे तक चलता है।
सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विशेषताएं
मेला का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व ही नहीं बल्कि शैक्षिक एवं आर्थिक महत्व भी है। नगर के SRM इंटर कॉलेज की स्थापना मेला कमेटी ने आर्थिक योगदान कर करायी थी, इसीलिए कॉलेज का नाम श्रीराम म्युनिसिपल इंटर कॉलेज रखा गया जो वर्तमान में कक्षा 12 तक संचालित हो रहा है।
पूरे उत्तर प्रदेश में यह मेला ऐतिहासिक घटनाओं के लिए जाना जाता है। मेला कमेटी के सदस्य मेला को सकुशल सम्पन्न कराने में पूरा सहयोग देते है। मेला में लीला का समापन होने पर विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है।