राजस्थान हाईकोर्ट के एक आदेश को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि अनुसूचित जाति (एससी) एवं जनजाति (एसटी) के लोगों के खिलाफ अत्याचार कोई अतीत की चीज नहीं है, यह आज भी हमारे समाज की हकीकत है। लिहाजा उनके संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए संसद द्वारा बनाए गए प्रविधानों का पालन किया जाना चाहिए और पूरी जिम्मेदारी से लागू किए जाने चाहिए।
शीर्ष कोर्ट ने यह टिप्पणी राजस्थान हाई कोर्ट के एक आदेश को खारिज करते हुए की जिसने हत्या के एक मामले में आरोपित को जमानत प्रदान कर दी थी जबकि इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) कानून, 1989 के तहत दंडनीय अपराध भी शामिल थे।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा कि इस मामले में एससी-एसटी एक्ट के प्रविधानों का उल्लंघन हुआ था और हाई कोर्ट ने जमानत याचिका पर विचार करते समय कानून की धारा-15ए के तहत शिकायतकर्ता को नोटिस नहीं जारी किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाति-आधारित अत्याचारों के कई अपराधी खराब जांच और अभियोजन की लापरवाही के कारण मुक्त हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप एससी / एसटी अधिनियम के तहत सजा की दर कम होती है, जिससे इस गलत धारणा को बल मिलता है कि दर्ज मामले झूठे हैं और इसका दुरूपयोग हो रहा है। पीठ ने कहा मौजूदा मामले में, यह स्पष्ट है कि नोटिस और सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया गया है। पीठ ने कहा कि जमानत देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कोई तर्क नहीं है और ऐसे आदेश पारित नहीं हो सकते। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में दर्ज प्राथमिकी के आधार पर अपने छोटे भाई की हत्या के संबंध में पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने वाले व्यक्ति की ओर से दायर अपील की अनुमति देते हुए कहा कि आरोपी को सात नवंबर या उससे पहले आत्मसमर्पण करना होगा।
कोर्ट की टिप्पणी
● पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार अतीत की बात नहीं है। वे आज भी हमारे समाज में एक वास्तविकता बने हुए हैं। इसलिए, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के उपाय के रूप में संसद द्वारा अधिनियमित वैधानिक प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिए और ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए।
●अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 15ए पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों से संबंधित है और इसकी उप-धाराएं (3) और (5) विशेष रूप से पीड़ित या उनके आश्रित को आपराधिक कार्रवाई में एक सक्रिय हितधारक बनाती है।
● पीठ ने कहा, “वर्तमान मामले में धारा 15ए की उप-धारा (3) और (5) में निहित वैधानिक आवश्यकताओं का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है।” अधिनियम की धारा 15 ए में महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल हैं जो जाति आधारित अत्याचारों और गवाहों के शिकार लोगों के अधिकारों की रक्षा करते हैं।
● पीठ ने कहा कि जमानत देने के उच्च न्यायालय के आदेश में कोई तर्क नहीं है और ऐसे आदेश पारित नहीं हो सकते।
●पीठ ने कहा कि जाति-आधारित अत्याचारों के कई अपराधी खराब जांच और अभियोजन की लापरवाही के कारण मुक्त हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप SC/ ST अधिनियम के तहत सजा की दर कम होती है, जिससे इस गलत धारणा को बल मिलता है कि दर्ज मामले झूठे हैं और इसका दुरूपयोग हो रहा है।
●पीठ ने कहा मौजूदा मामले में, यह स्पष्ट है कि नोटिस और सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया गया है। पीठ ने कहा कि जमानत देने के उच्च न्यायालय के आदेश में कोई तर्क नहीं है और ऐसे आदेश पारित नहीं हो सकते।
उच्चतम न्यायालय ने 2018 में दर्ज प्राथमिकी के आधार पर अपने छोटे भाई की हत्या के संबंध में पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने वाले व्यक्ति की ओर से दायर अपील की अनुमति देते हुए कहा कि आरोपी को सात नवंबर या उससे पहले आत्मसमर्पण करना होगा।