भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ऐसे प्रकाश के स्रोत के रूप में ग्रहण किया गया है जो ज्ञान की दीप्ति से अज्ञान के आवरण को दूर कर जीवन को सही मार्ग पर ले चलता है इसीलिए उसका स्थान सर्वोपरि होता है और उसे ‘साक्षात परब्रह्म’ तक कहा गया है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि शिक्षक इस बात से अवगत हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है। लोग नस्ल, धर्म, राजनीति, अर्थ के आधार पर बंटे हुए हैं और यह विभाजन विखंडन है।मानव के विरुद्ध मानव की हिंसा फैलती जा रही है।यही हो रहा है; ऐसे में शिक्षक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया है।
एक शिक्षक दुनिया भर के विद्यालयों में ऐसे अच्छे इंसान गढ़ने के लिए चिंतित है, जिसमें विश्व बंधुत्व की भावना हो, जो राष्ट्रवादी, क्षेत्रीय, धार्मिक रूप से पुरानी, मृत परंपराओं से जुड़ा हुआ न हो इसलिए शिक्षक की वास्तव में जिम्मेदारी अधिक चुनौतीपूर्ण, अधिक प्रतिबद्धताओं वाली, और अपने छात्रों की शिक्षा को लेकर अधिक सतर्कता वाली हो गई है।
वो होते हैं जिन्न
वे एक साथ कई भूमिकाएँ निभाते हैं।
जब खिलखिलाते हैं
तब वे होते हैं मित्र
डाँटते हैं तो पिता जैसे
लाड़ करते हैं माँ जैसे
कक्षा में ज्ञान देते समय
वो बन जाते हैं ईश्वर
वो स्कूल पहुंचते हैं हमसे बहुत पहले
ताकि कर सकें हमें ज्ञान देने की तैयारी
फिर लौटते हैं हमसे बहुत बाद
शाम के झूलपटे में
उन्हें भी लाना होता घर का सामान
सब्जी तेल अनाज
उन्हें भी करनी होती है
परिवार की परवरिश
उनके पास बच्चे हैं,
उनकी पढ़ाई की चिंता है
उनके प्रश्नों और उनकी जरूरतों को
करना है पूरा
उन्हें करनी है देखभाल
पति की सास ससुर माता पिता की
उन्हें निपटाने हैं सामाजिक सरोकार
फिर स्कूल में में आकर
पढ़ाई के साथ
चुनाव ,मध्यान्ह भोजन
सर्वे ,प्रशिक्षण ,साफसफाई
सांस्कृतिक कार्यक्रम
फिर निकालना है
माननीयों की रैली
देना है अधिकारीयों के पत्रों के जबाब
जरा सी चूक में खाना है अधिकारियों की डाँटें
पूरी करनी हैं जनप्रतिनिधियों की
गैर जरुरी माँगें
उन्हें पहनना हैं सीधे सरल कपड़े
तड़कभड़क से दूर
बिना शिकायत के
बिना उम्मीदों के
निरंतर चलना है कर्तव्यपथ पर।
जलते रहना है निरंतर
देना है ज्ञान का प्रकाश
जिससे आलोकित हो
भारत का भविष्य।
शिक्षक होना
कहाँ आसान है ?
:सुशील शर्मा